बिधाता
उसके साथ
एक-से-एक बन्दर, एक-से-एक भालू
एक-से-एक साँप हैं मजमा लगाने को
उसके जैसा
कोई मदारी नहीं है; वह खेलता नहीं खेलवाता
है, जो हारा वह भी उसका, जो जीता वह भी उसका, उसकी तरह कोई जुआरी नहीं है; निजी हो या राष्ट्रीय धन, चोरी
की कला में ग़ज़ब माहिर, पकड़ में नहीं आता, जकड़ में नहीं आता, किसी के पास ऐसी सेंधमारी नहीं है; हत्या करता
नहीं करवाता है, कैसे करोगे शक इस मन्दिर, उस मठिया घूमके टीका-भभूत लगाता है, आरती-जाप करता
है, एक पाँव पर ताप करता है, ख़ुद को सन्त कहता है, उसकी तरह कोई पुजारी नहीं है; यह और बात
बच्चों का भविष्य लूल-लँगड़ बन जाए, बन्धक बनवाता है, खन्दक खोदवाता है, लेकिन मिलता
है जब प्यार का दरिया दिखाता है, साथ फ़ोटो खिंचवाता है, ऐसा बाप क्या, उसके जैसी
कोई महतारी नहीं है; उसके कपड़ों पर कहीं कोई दाग़ नहीं होता, लेकिन रास्ते
पर अपने चाकरों द्वारा रखा ख़ाली बोतल उठा दिखाता है कि स्वच्छता
ज़रूरी है, इससे पूरी पृथ्वी सुन्दर होगी, लेकिन इस अभिनय में
वह भूल जाता है, गंगा-यमुना ही नहीं जाने कितनी नदियाँ
मैली होती जा रहीं, कितनी दुख रहीं सूख रहीं, वह
पेड़ लगाता है विदेश में, देता है सन्देश देश
में कि पर्यावरण के लिए पेड़ कितने
ज़रूरी हैं, जो देश में नित्य
कट रहे, जंगल के
जंगल घट
रहे
उसकी तरह
कोई दुधारी नहीं है; वह अपनी हर
नीति पर अपने फ़ैसला करता है, जब तक कुछ मर न जाएँ, दंगा-फ़साद न हो जाए, घर
घर अवसाद न हो जाए, तब तक वापस लेता नहीं, उसके जैसा नमूना नहीं कहीं, उसकी
तरह बनवारी बहुत हैं, लेकिन उसकी तरह कोई पलटूधारी नहीं है; वह हँसता है
तो आम खाते हुए, मुस्कुराता है तो ड्रम बजाते हुए, रोता है तो हाथ जोड़े
हुए, यूँ वह बहुरुपिया ही नहीं बहुधुर्तिया भी है, कला होगी कइयों
भीरी, लेकिन उसकी तरह किसी के पास कलाकारी नहीं है
चुनाव आए तो वोट दिल खोलकर माँगता है, दोनों
हाथ पसारकर माँगता है, बावजूद कोई हार
जाए गढ़, बढ़-चढ़ तब भी बनवा लेता
है, कोई चिल्लाए संविधान की
दुहाई देता है, पिछली
सरकारों के दोष
गिनावाता
है
मीडिया में
प्रचार-प्रसार करवाता है, इस पर अगर
आपत्ति, काला ख़ज़ाना हो न हो समन भेजवाता है, कब तक खड़े रहेंगे रहनेवाले, कब तक अड़े रहेंगे सहनेवाले
थककर थसक जाते हैं, इरादे से घसक जाते हैं, गाने लगते हैं उसी का गुन, चुन-चुन, धुन सुन-सुन, उसके जैसी
किसी की फ़ौजदारी नहीं है; वीरों का वीर है, तीरों का तीर, मन का समीर है, कवि भी है, रवि भी है, हवि
भी है, इतिहास लिखता नहीं सुनाता है, चित्र बनाता नहीं रसिक है उसका, संस्कृित झाड़ू लगाती है
उसके यहाँ, सभ्यता रसोइया है, वह पहले हिमालय में रहता था, भक्ति में लीन रह जाता
वहीं, गाँधी ने उसे बुला कि उसके बिना राज सूना, आज़ाद ने आह्वान किया–उसके
बिना आज़ादी सुरक्षित नहीं, भगत सिंह ने कहा कि उसके जैसे साहसियों की
कमी है, नेहरू ने एक अलग ही नस्ल पैदा कर दी है, सावरकर ने पत्र
भेजा–बदलो वेश, आओ हे पूत, नहीं तो बन जाएगा यह तुरकों
का देश, गोडसे ने कुछ भी नहीं कहा, बस पीठ थपथपाई
आगे जाने की राह बताई, वह कहता है झूठ थोड़े न
कहता है जब बैरियों की आँखें ही नहीं, क्या
करे, वे देखें तो जानें, जानें तो समझें
समझें तो मानें, देश ख़ातिर
उससे बढ़िया, किसी
की वफ़ादारी
नहीं
है; उठा झोला, चल देगा कभी भी कि
उसके जैसा कोई झोलाधारी नहीं है !